गैरों से क्या शिकवा करूं, अपनों ने है ठगा,
मेरी जां ने ही लगाई कीमत मेरी जान की………
कल तक जहाँ रहती थी, खुशियों की ही सदा,
सन्नाटे में गूंजती है चीख , उस मकान की….
Sunday, August 17, 2014
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गैरों से क्या शिकवा करूं, अपनों ने है ठगा,
मेरी जां ने ही लगाई कीमत मेरी जान की………
कल तक जहाँ रहती थी, खुशियों की ही सदा,
सन्नाटे में गूंजती है चीख , उस मकान की….
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